भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देशोद्धारकों से / प्रभाकर माचवे
Kavita Kosh से
मृदुल नींद नीड़ की गोद में
- और परों की सेज नरम,
बाहर झुलसी हवा बह रही
- रह-रह कर लू तेज़ गरम,
बाहर अर्धनग्न पीड़ा
- भीतर क्रीड़ा-लबरेज़ हरम,
करुणा के आँगन में, नेता
- दे थोड़ी-सी भेज शरम !