देह-विदेह - 2 / विमलेश शर्मा
मेरे लौट जाने पर
जब खोजोगे मुझे
कुछ नहीं होगा वहाँ,
होंगे तो बस्स!
संदूकची में क़रीने से तह किए कुछ शब्द
जिन्हें यह जानते हुए रख छोड़ा था कि
कुछ लिक्खा नितांत अपना होता है!
तुम कुछ नमी ओढ़ भूल जाओगे उन्हें
समय की करवटों में
जैसे मैं भूल गई थी
चौथे दरज़े में लिखी परियों वाली कविता
और हॉस्टल के वो लास्ट यीअर नोट्स!
जानती हूँ
कभी चाँदनी में डूबे
कभी कार्तिक में नहाए
तो कभी जेठ की दोपहरी में पके ये शब्द
महज़ रोशनाई ही होंगे तुम्हारे लिए
तुम्हें ये आख़र आख़िरी ही नज़र आएँगे
पर ये ही तो थे मिरे हमसफ़र
आख़िर तक!
सुनो! उस सैलाब में उतरते वक़्त
चीनी दाब लेना दाँतो में
कुछ तेल मल लेना दुधिया अपनी हथेली पर
मैं जानती हूँ तुम्हारी देह ख़ुश्क हो जाती है ज़ल्द ही।
और वहाँ केवल उदासियों का खारा समंदर है!
पनीले धुँधलके से लड़ते हुए तुम ग़ौर करना
वहाँ मिलेंगी तुम्हें
रात चाँदनी,
बरसती बारिशें,
और नेपथ्य में
बेआवाज़ टूटता मौन!
मैं यह सब कह तो रही हूँ पर मुझे अंदेशा है,
कि तुम मौन की उस लिपि को पढ़ भी पाओगे !
कि तुम इस चौखट तक उस क्षण आ भी पाओगे?