दोहा / भाग 2 / रसनिधि
करत फिरत मन बावरे, आप नहीं पहिचान।
तो ही मैं परमातमा, लेत नहीं पहिचान।।11।।
तूँ सज्जन या बात कौं, समुझ देख मन माहिं।
अरे दया मैं जो मजा, सो जुलमन मैं नाहिं।।12।।
प्रीतम इतनी बात को, हिय कर देखु बिचार।
बिनु गुन होत सुनिकहूँ, सुमन हिए कौ हार।।13।।
हित करियत यह भाँति सौं, मिलियत है वह भाँत।
छरि नीर तैं पूछ लै, हित करिबे की बात।।14।।
रूप-समुद्र छवि-रस भरौ, अति ही सरस सुजान।
ता में तैं भर लेत दृग, अपनै घट उनमान।।15।।
अरे मीत या बात कौ, देख हिए कर गौर।
रूप दुपहरी छाँह कब, ठहरानी इक ठौर।।16।।
लाल भाल पै लसत है, सुन्दर बिन्दी लाल।
कियौ तिलक अनुराग ज्यौं, लख कै रूप रसाल।।17।।
बिधि ने जग मैं तैं रच्यौ, ऐसी भाँति अनूप।
आभूषन कौ है लला, आभूषन तुव रूप।।18।।
और सवादन पै लखौ, भूलहु चित्त न देइ।
अँखिया मोहन रूप कौं, बिन रसना रस लेइ।।19।।
जो भावै सो कर लला, इन्हैं बाँध वा छोर।
हैं तुव सुबरन रूप के, ये मेरे दृग चोर।।20।।