भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहा सप्तक-05 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
साथ न कुछ ले जा सके, करे प्रयत्न अनेक।
शाश्वत साथी है यही, कर्म करो तज टेक।।
कुल संचालक पुत्र ही, करे सदा उद्धार।
केवल इस विश्वास में, बढ़ा लिया परिवार।।
झट जवान हो जायेगी, महंगा वर का रेट।
बेटी को भोजन कभी, दिया नहीं भर पेट।।
तार नेह के बांधिये, जन का मन पहचान।
बिन बोले जो कर सके, अन्तर्हित का ज्ञान।।
जब जब भी अवसर मिले, लो तकदीर सँवार।
बार बार खुलता नहीं, बन्द भाग्य का द्वार।।
गगन - गली चन्दा फिरा, भटका सारी रात।
ला न सका पर ढूंढ़ कर सुन्दर सुघर प्रभात।।
मुट्ठी भर भर बाजरा, छींट गया राकेश।
आँचल में भर ले गईं, रवि - किरणें निज देश।।