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दोहा सप्तक-43 / रंजना वर्मा
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शशि कन्दुक ले हाथ मे, चली खेलने रात।
माला बिखरी टूट कर, सिहरा श्यामल गात।।
श्याम सघन अलकावली, प्रकृति चन्द्र मुख पास।
ज्यों ही अवगुंठन पड़ा, अम्बर हुआ उदास।।
भोर तारिका का टिफ़िन, रवि को देती रैन।
साँझ ढले जब लौटना, लाना मन का चैन।।
निशिपति ने चुटकी भरी, सिसक उठी लो रात।
अम्बर को भर अंक में, मुस्काया फिर प्रात।।
संरक्षक भक्षक बने, घर जलते शमशान।
पड़ीं दरारें भूमि पर, कौन दिलाये त्राण।।
चीतल सिंह शिकार से, सजा रहे शो केस।
रावण वंशी आ गये, धर मानव का वेश।।
सूझी क्या मनुपुत्र को, किया वनों से वैर।
जड़ मिटतीं की काटता, कहाँ रखेगा पैर।।