दोहे-4 / मनोज भावुक
एगो से निपटीं तले, दोसर उठे बवाल।
केहू कतनो हल करी, 'जिनिगी रोज सवाल'॥1॥
जिनिगी के दालान में का-का बा सामान।
ख्वाब, पंख, कइंची अउर लोर-पीर मुस्कान॥2॥
पाँख खुले त आँख ना, आँख खुले त पाँख।
एही से अक्सर इहाँ, सपना होला राख॥3॥
रिस्ता-नाता, नेह सब, मौसम के अनुकूल।
कबो आँख के किरकिरी, कबो आँख के फूल॥4॥
'भावुक' अब बाटे कहाँ, पहिले जस हालात।
हमरा उनका होत बा, बस बाते भर बात॥5॥
उनके के सब पूछ रहल, धन बा जिनका पास।
हमरा छूछे भाव के, के डाली अब घास॥6॥
पर्वत से निकलल नदी, लेके मीठा धार।
बाकिर जब जग से मिलल, भइल उ खारे-खार॥7॥
अब के आई पास में, पेंड़ भइल अब ठूँठ।
'भावुक' दुनिया मतलबी, रिस्ता-नाता झूठ॥8॥
हमरा कवना बात के, होई भला गरूर।
ना पद, ना धन, ज्ञान बा, ना कुछ लूर-सहूर॥9॥
तहरा से केतना लड़ीं, जब तू रहलs पास।
बाकिर अब तहरे बिना, मन बा रहत उदास॥10॥