दो कविताएँ तुम्हारे लिए / लाल्टू
1)
इस मुर्झाए से दिन में
मैं खुद को कह रहा हूँ बार बार कि
खुश हो जाऊँ
कि तुम किस मक़सद से हो रही हो रूबरू
मैं कहता हूँ कि प्यार नहीं है सिर्फ़ चाहत वस्ल की
कि तुम जिन राहों पर चलना चाहती हो
उनकी मिट्टी को भी है चाहत तुम्हारे फूल से पैरों को
चूमने की
इस मुर्झाए से दिन में
अपनी सारी चिंताओं को कर रहा हूँ दरकिनार
कि अब तुम दूर जहाँ भी हो
बस में या बस के इंतज़ार में
तुम्हारे इर्द-गिर्द महक रहा है समाँ
तुम्हारा मुझसे दूर होना मेरी तड़प ही नहीं
यह खिलने की वजह है फूलों की कहीं।
2)
तुम्हारी आवाज़ जो कल शाम से लगातार दूर होती गई
मुड़ आई मुझ तक तो मैंने सुना कि
धरती पर हर बच्चा खिलखिला रहा है
मैंने देखा कि तुम फिर किसी गाँव के पास से गुज़र रही थी
और सस्ती बत्तियों की रोशनी में भी चमक रहे थे
तुम्हारे आँसू
मैंने हवा से कहा कि वह तुम्हें बता दे कि
मैंने खाना खा लिया है
मैंने ज़्यादा नहीं पी
खाना ज़्यादा खाया है पर कोई फ़िक्र की बात नहीं
और कि मेरी ही तरह तुम भी सोने की तैयारी करो।