द्रुपद सुता-खण्ड-14 / रंजना वर्मा
शोणित-सम्बन्ध है ये, मर्यादा का बन्धन ये,
निभाने की परिपाटी, सदा ही हमारी है।
रंग महलों में है क्या, दासियों की कमी हमें,
रूप सिंधु सम रूप, रूपवती सारी हैं।
ऐसी एक नारी ने ही, जन्म हम को है दिया,
जनती सदैव जग, को ही एक नारी है।
भूल मत जाओ भाई, जाया है परायी यह,
भाइयों की नारी है ये, जननी हमारी है।। 40।।
सुनते वचन नीति, रीति और प्रीति भरे,
शुद्ध बुद्ध समता के, स्नेह-पुंज बल से।
भस्म करने को शिव, शंकर के नेत्र सम,
नेत्र थे दुर्योधनके, मानो उठे जल से।
नयन तरेर लगा, फटकारनेवो उसे,
भरे थे विचार और वाणी सब छल से।
भाई ये हमारा मीत, कैसे पांडवों का हुआ,
जा के आज वैरी मिला, है ये शत्रु दल से।।41
रक्त है हमारा यदि, भाई जननी का जाया,
रिपुओं की शरण क्यों, तुझे बोल भायी है।
मौन रहता था सदा, श्रेष्ठ तो वही था किन्तु,
लगता है रसना ये, नयी कहीं पायी है।
अपनों के देखता है, दोष शत्रुओं का प्रिय,
नयनों में ज्योति यह, अनोखी ही आयी है।
दुष्ट हे कृतघ्न बैठ, मूँद के नयन कहीं,
वैरी-अपमान यदि, हुआदुखदायी है।। 42।।