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द्रुपद सुता-खण्ड-15 / रंजना वर्मा

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दूषित दुराशय की, दृष्टि द्रौपदी पे डाल,
बोल उठा-हाय अब, सहा नहीं जाता है।
बन्धु मीत मेरे कर्ण, भाई क्या बताऊँ अब,
'काम' ने किया जो कुछ, कहा नहीं जाता है।
देर की दुशासन ने, कामिनी-कटाक्ष-शर,
उर में समाया हुआ, अहा नहीं जाता है।
श्याम-सरसिज-सम, आनन नयन-बिंदु,
ढलतानीहार देख, रहा नहीं जाता है।। 43।।

करता कटाक्ष हाथ, जोड़ हँस बोला धृष्ट,
दूर से यों देख देख, हृदय जलाओ ना।
बहुत सतायातेरे, रूप ने है रूपमयी,
अवसर आया अब, इतना सताओ ना।
पाँच पाँच कायरों से, अधिक प्रतापी हूँ मैं,
ऐसे प्रणयी को अब, और तड़पाओ ना।
प्रेम भरी दृष्टि का हूँ, याचक तुम्हारी प्रिये,
छोड़ अभिमान मान, पास चली आओ ना।। 44।।

कुत्सा भरी ये बात,सुनते ही जला गात,
रोष से तरेरता है, नैन भीम अपने।
लज्जित युधिष्ठिर की, भृकुटि विकट हुई,
लगा गात क्रोध से परन्तप का कंपने।
काँपा सहदेव वीर, नकुल तड़प उठा,
लगा रोम रोम जैसे,ज्वाला बीच तपने।
देख के अवशता ये, लाज भरे पतियों की,
द्रुपद-सुता के सारे, जले सुख,- सपने।। 45