द्रोणाचार्य की परवशता / बीना रानी गुप्ता
विलक्षण प्रतिभा
फिर भी घोर दारिद्रय
दूध को रोता सुत
कैसे मिटाऊँ भूख ?
चिंतित पिता
कर रहा निज पितृत्व
से सवाल
मन में है मलाल
आहत मन
आत्मग्लानि का ज्वार
विक्षोभ का दुर्विनार
मेरी प्रतिभा
ज्ञान का अक्षय कोश
आज सब व्यर्थ।
पुत्र पालन में भी असमर्थ।
आह
इसी विवशता ने
छीन ली मेरी स्वायत्तता
स्वीकार्य हुई
राजतंत्र की दासता
तभी तो
सत्य-असत्य
धर्म - अधर्म
के बीच
निरूत्तर खड़ा हूँ
चक्रव्यूह में फँसे
अबोध अभिमन्यु का
सीना छलनी करने लगा हूँ
राजसभा में
हो रहा नारी अपमान
पर मैं धृतराष्ट्र बन गया हूँ।
मैं संजय बन ही नहीं पाया
आज भी मूक बधिर-सा खड़ा हूँ।
मेरा अंर्तज्ञान मौन
वाणी भी मौन
मेरी विवशताएँ
अनुमति नहीं देती
विद्रोह संघर्ष की।
आज भी द्रोणाचार्य
शिक्षा के बाजार में
बिकने को खड़ा है।
यह धृतराष्ट्र समाज
उस अमूल्य द्रोणाचार्य
का मूल्य
कम आँकने पर लगा है।
इस अंधी गली में
कभी तो प्रकाश की किरण होगी
द्रोणाचार्य की विवशता
नहीं बनेगी परवशता
स्वायत्तता की किरणें ही खोलेंगी
प्रज्ञा का द्वार
तभी होगा
शायद भारत का उद्धार।