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द्रौपदी विनय / शब्द प्रकाश / धरनीदास
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कौरव अथाई अतताई की दुशासनसो, द्रुपद-सुता को पट खींचो वहि ठाँहरे।
नारी सुकुमारी हिय हारी न सँभारि तन, कोइ न सहाय मानो गाय गहीनाहरे॥
अपती के पति यदुपति राखो अब, मन वच करम करति तोहिँ हाह रे।
धरनिको धरो लाज राखो पति महाराज, ना तो होतिहौं मैं पति हू के हाथ वाहरे॥12॥