धधकती आग से सम्वाद / महेश सन्तोषी
दो हाथ हैं मेरे, मैं इन हाथों में, हजारों हाथ चाहता हूँ।
दबा-दबा धुआँ नहीं, मैं धधकती आग से, सम्वाद चाहता हूँ।
अकेला हूँ मैं एक इन्कलाब के लिए
सारे अवाम का साथ चाहता हूँ।
वर्षों से भाड़े की एक लम्बी भीड़
मेरा आगे का रास्ता रोक रही है,
चीख-चीख कर मेरे जमीर पर चोट करती हुई
मेरे साहस को कोस रही है,
हम यहाँ अशान्ति के लिये इकट्ठे होते हैं
किसी क्रान्ति के लिए नहीं
इतिहास बदलने जैसा हमारे मन में
कोई दम्भ, भ्रम या भ्रान्ति नहीं।
तुम अकेले हो हमेशा अकेले ही रहोगे
बन्द रास्तों पर, बन्द दरवाजों पर दस्तक देते रहोगे,
क्रान्ति के द्वार तक पहुंचने की आसपास यहाँ
कोई सरगर्मियाँ ही नहीं
वक्त से हारे बौनों के पास भी
होती हैं कुछ ऊंचाईयाँ
पर इन बिके हुये बौनों की तो उतनी भी ऊंचाइयाँ नहीं
भाड़े पर अशान्तियाँ ही खरीदी जा सकती हैं।
इतिहास नहीं, क्रान्तियाँ नहीं!