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धरती, उलट-पुलट कर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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अर्थशक्ति का अजगर
तम-कंकाल भयंकर,
जीवन के युग-वत्सर
निगल रहा मन्वन्तर।
कदलि-पत्र-से जर्जर,
धरती, उलट-पलट कर!

सत्ता का गर्वोन्नत
नगाधीश हो अवनत,
पद-तल का रज लघुतर
रवि के भी हो ऊपर।
पद-तल कर दो अम्बर,
धरती, उलट-पलट कर!

कहीं रेत-कण, कंकड़
कहीं लाल, संगमरमर,
कहीं विपिन, वन-प्रान्तर
कहीं कन्दरा, खंड़हर।
फोड़ भेद का मन्दर,
धरती, उलट-पलट कर!

कहीं सड़क चन्दन-सी
शीतल भुज-बन्धन-सी,
कहीं पंक से बन्धुर
दुर्गम कंटक-वन-सी।
सुघड़ सुलट कर, सम कर,
धरती, उलट-पलट कर!

उगल-उगल कर दुर्धर
ज्वालामुखी निरन्तर,
मुक्तवृत्त छन्दों में
नृत्य-व्यूह बन्धों में।
झील बना दो भूधर,
धरती, उलट-पलट कर!

शासन के दोषों में
त्रासन के रोषों में,
रण-डमडम घोषों में
रूढ़ि-ग्रन्थि-कोशों में।
धरती, उलट-पलट कर!

लटक गगन में निर्जन
दैन्य-विवर में जीवन,
तोड़ रहा दम प्रतिक्षण
जड़वत्, सुप्त, अचेतन।
प्राणवान चेतन कर,
धरती, उलट-पलट कर!

जंगम हो स्थावर जग
गरुड़पंख डगमग डग,
दुर्बल रंक पुरन्दर
विकल कण्ठ-स्वर खरतर।
बर्फ़-पिण्ड हो दिनकर
धरती, उलट-पलट कर!

(रचना-काल: जून, 1946। ‘विशाल भारत’, अगस्त, 1946, में प्रकाशित।)