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धरती पर कवि (चार) / कुमार कृष्ण
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भाषा का पसीना
शब्दों की खुशबू है धरती पर कवि
वह नारी को नदी पुरुष को पेड़ बनाता है
धरती पर कवि-
आदमी-औरत दोनों को लगाता है पंख
धीरे-धीरे बदल जाते हैं दोनों पतंग में
मनुष्य को मनुष्य बनाने में
बीत जाती है उसकी पूरी उम्र
वह सुनाता है राजा-रानी के किस्से
उसके के कायदे-कानून
वह छुपा कर रखता है काफल और कंदील
अपनी कविता में
बचा रहे धरती पर बचपन का गाँव
उसे दुःख है वह नहीं सीख सका एक काम
तय किया है उसने-
अगली बार जब आएगा इस धरती पर
वह सीख कर आएगा चीन-बंगाल का जादू
एक झटके में बंद कर देगा लकड़ी के बक्सों में
धरती के तमाम राजा
वह बार-बार आना चाहता है इस धरती पर