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धरती हो कामधेनु सी / विजय सिंह नाहटा
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धरती हो कामधेनु सी
लयबद्ध गिरती रहे बारिश
पसरा हुआ सन्नाटा
पारदर्शी आलोक भिगोता हुआ।
प्रेम एक प्राचीर की तरह हमें घेर ले
और सहसा प्रक्षेपण करें
हर जीवंत उपस्थिति में।
होते हुए अंकुरित एक दूजे की कामभूमि पर
हम दो जन अकेले इस स्निग्ध पृृथ्वी पर
इस परिधि रहित समय में: खुलते हुए अनन्त में
और यूं स्वागत में उत्सुक से ताकते
देखते रहे दूर तलक
एक दूजे को
खुशबू के कठोर आलिंगन से
सहज ही मुक्त होते।