धरा-पुत्री / भारतेन्दु प्रताप सिंह
प्रातः कालीन सूर्य के साथ
जब जिन्दगी अपना रंग बिखेरती है – चतुर्दिक,
उसका स्वागत करना मैंने तुमसे सीखा है,
सिंदूरी लाल रंग में नहाई धरा
अपनी धरोहर
तुम्हारे हवाले कर देती है
चिड़ियों के गीत, पौधों की सुगबुगाहट और
यहां तक की ढेर सारे लोगों की रोजी-रोटी ।
तुम्हारे पद चिन्हों पर उगते जाते हैं फूलों के अम्बार – रंग बिरंगे,
तुम्हारे बनते बिगड़ते मनःस्थिति के रंग, तुम्हारे पीछे
उन्हीं फूलों में निकलते जाते हैं।
तुम्हारे चले हुए रास्ते को साजते संवारते
लोगों को मिल जाता जीने का सम्बल और जीवन-धर्म ।
इतने सजीव और सार्थक संसार की सांस
वास्तव में तुम्हारी तपस्या से ही जन्मती है।
हे धरा पुत्री तुम्हारा यह तापस स्वरूप ही
देख सकते है नश्वर मनुष्य
पेड़ पौधे पखेरू और मैं,
तुम्हारे पास होने का मतलब है
सृजन में होना तुम्हारे साथ,
तुम्हें प्यार करने का अर्थ है
धरती और प्रकृति को प्यार करना
क्योंकि तुम सचमुच धरा-पुत्री ही हो।
तुम्हारे प्रतिदिन की गतिविधियां
एक जीवन यात्रा का पड़ाव है
तुम्हारी दैनिक दृष्टि
परिभाषित करती है जीवन धर्म
और तुम्हारी दिनचर्या भी
जगत गति की वाहक है।
मैं नहीं दूर कर सकता तुम्हारी बिडम्बना
वह तो तुम धरा से पूछो
प्रकृति से पूछो या फिर पूछो फैले आसमान से
कि तुम्हें ही क्यों मिली
यह विरासत-शाश्वत, अनवरत और सृजनशील
तत्वों के वहां पहुंचाने की
जहां सूर्यरथी धरती प्रकृति आदि -2
सभी तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे हों
तुम्हारी समय-यात्रा पूरा होने पर
बधाई देने के लिए।
मैं जानता हूं और महसूस भी करती हूं कि
ठीक वही मैं बन सकता हूं
तुम्हारा रथी,
क्योंकि उस रथ को चलाने का
सौभाग्य केवल उसे है
जो पग-पग पर तुम्हारे साथ
चल सके – पहुंच सके वहां
जहां पृथ्वी-आकाश, जन्म-मृत्यु
सब कुछ का
कोई अर्थ नहीं रह जाती है