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धरा की गोद / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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					1
कम्पित धरा
उदर-पीर बढ़ी
आया भूकम्प ।
2
झूमी फसलें
धरा ने पहने हैं
प्यारे गहने ।
3
धरा का बल 
नदियाँ कल-कल 
गाते झरने।
4
धरा की गोद
थका-हारा जीवन
पा जाए चैन।
5
धरा सबकी 
नफ़रत की बाड़
 लगाना नहीं।
6
धरा-आँचल
फैली है हरीतिमा
सुघड़ तन ।
7
धरा-सी  व्यथा
तुम्हारे मन दबी
सहती गई।
8
होते ही भोर
धरा ने बिखेरे हैं 
ओस के मोती ।
9
उड़ी थी धूल 
 किरकिराई आँखें 
धूसर नभ ।
10
क्षितिज हँसा 
सिन्दूरी कपोल थे 
नभ के हुए ।
11
खेलते खो-खो 
मेघ-शिशु अम्बर 
शोर मचाएँ ।
12
धमा-चौकड़ी 
करती अम्बर में 
मेघमालिका।
13
धान रोपती 
छप-छप बदरी 
अम्बर क्यारी ।
14
नभ -अधर 
हुए जो मुकुलित 
ऊषा पधारी ।
15
नभ उदास 
हो गई दोपहर  
कोई न पास ।
 
	
	

