धार पर संतार दो / अज्ञेय
चलो खोल दो नाव
चुपचाप
जिधर बहती है
बहने दो।
नहीं, मुझे सागर से
कभी डर नहीं लगा।
नहीं, मुझ में आँधियों का
आतंक नहीं जगा।
नाव तो तिर सकती है
मेरे बिना भी;
मैं बिना नाव भी
डूब सकूँगा।
मुझे रहने दो
अगर मैं छोड़ पतवार
निस्सीम पारावार
तकता हूँ;
खोल दो नाव
जिधर बहती है
बहने दो।
यहाँ भी मुझे
अन्धकार के पार
लहर ले आयी थी;
चूम ली मैं ने मिट्टी किनारे की
सुनहली रज
पलकों को छुआयी थी;
अब-ओठों पर जीभ से सहलाता हूँ
खार उस पानी का
मन को बहलाता हूँ
मधुर होगा मेरा अनजाना भी
अन्त इस कहानी का।
रोको मत
तुम्हीं बयार बन पाल भरो,
तुम्हीं पहुँचे फड़फड़ाओ,
लटों में छन अंग-अंग सिहरो;
और तुम्हीं धार पर सँतार दो चलो,
मुझे सारा सागर
सहने दो।
खोल दो नाव,
जिधर बहती है
बहने दो।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 13 मार्च, 1969