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धीमा प्यार / येव्गेनी येव्तुशेंको

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क्या आप इर्कूत्स्क गए हैं कभी
वहाँ आपने देखी होंगी बेहद सुन्दर खिड़कियाँ
और उनसे झाँकती
उनसे भी कहीं अधिक ख़ूबसूरत लड़कियाँ
गर्व झलकता है जिनके चेहरों पर असीम
कि मन में पैदा हो जाती है भावना हीन
वहाँ मेरे मन की भी चोर भावनाएँ
चूर-चूर हो गई थीं देख असम्भावनाएँ

वह थी लावण्या
सुन्दर, अतिसुन्दर कन्या
भोली थी वह
पवित्रा, अछूती वन्या
लाल जेबों वाली अपनी नीली फ्राक में
गुज़रती थी जब वह मेरे पास से
नन्हें बादलों की तरह नीली अपनी
प्यारी आँखों से छेड़ती थी मुझे
जैसे बुलाती हो अपने पास
निमन्त्रण देती हो सायास

पर जैसे ही मैं बढ़ता था उसकी तरफ़
वह अचानक खड़ी हो जाती थी
अपने दोनों घुटने जोड़
नज़रें नीची कर लेती थी
एक हाथ कन्धे के पीछे मोड़
दूसरे हाथ की एक उँगली से
अपने होंठों को ढककर
धीरे से फुसफुसाती थी
कहती थी -- न...ना...मत कर

तब मैं मूर्ख हुआ करता था
कुछ भी करते मन-ही-मन डरता था
सब औरतों को मैंने बाँट रखा था दो हिस्सों में
इन्हें छू सकते हैं और उन्हें नहीं
विश्वास करता था
कुछ इसी तरह के सुने-सुनाए किस्सों में

झूठ बोलते हैं लोग मेरे बारे में
जब देते हैं ये आभास
कि जीवन सारा गुज़रा है मेरा
सिर्फ़ स्त्रिायों के साथ
उन्हीं के आसपास

तब मैं डरता था कि
स्त्रियाँ होती हैं चौकस ख़ूब
प्रेम में होती हैं कायर
किसी फन्दे-सा लगता है उन्हे प्यार
पुरुषों से वे बचती हैं लगातार

सुन्दर चेहरे वाली उस सुकन्या ने
एक पत्र लिखा था मुझे ऐसा
जो मुझे लगा था किसी कविता जैसा --

‘‘तुम कल्पना करो पल भर को
कि रात हो, अँधेरा हो
बकाइन के फूल खिले हों
और उनकी गन्ध महका रही हो घर को
टैरेस हो, टैरेस पर हम हों
और हमारी नज़रें एक-दूसरे पर थमी हों

वहाँ जल रही मोमबत्ती हमें
परस्पर निकट ला रही हो
पिघल रही हो धीरे-धीरे
कान में हमारे कुछ फुसफुसा रही हो
सामने मेज़पोश पर रखा हो मुरब्बा
रिमझिम बारिश बरस रही हो
स्वर उसके हवा में गूँज रहे हों ऐसे
जैसे वह हम पर हँस रही हो
हम मौन खड़े हों वहाँ एक साथ
शरीर के दोनों तरफ़
नीचे की ओर लटके हुए हों हमारे हाथ...’’

छठा दशक वह
क्या समय था
कविता ने हिला रखा था पूरा देश
लोग प्रतीक्षारत् थे कि कुछ होगा नया
शायद बदल जाएगा अब परिवेश
और उस सुकन्या के मन में
शायद विचार था यह
कि विवाह हो जाए और वह...
पर हो सकता है वह चाहती हो
सिर्फ़ धीमे प्रेम में पगना
और प्यार की मीठी-धीमी आँच में सुलगना


सब लड़के हम
तब ढीठ बैल थे
छैल-छबीले और हठैल थे
प्रेम में हम फटे ढोल थे
जल्दबाज़ थे, गोलमोल थे
भोले थे इतने कि समझ न पाते
होगा क्या अब, क्या करना पड़ेगा
सोचते थे बस इतना ही कि
ऊपर वाला हमें सब क्षमा करेगा
यहाँ तक कि हम यह समझ न पाते
कि वह कहती है जब -- न...ना...
मतलब इसका होता है -- हाँ...हाँ...

कौन जाने
वह अब कहाँ होगी
इर्कूत्स्क नगर की वह लावण्या
वह नाज़ुक, भोली, अछूती कन्या
वह दादी होगी, नानी होगी
पौत्रों के संग दीवानी होगी
उन्हें घुमाती, गोद उठाती
इर्कूत्स्क के मोहल्लों में कहीं
दिखती होगी आती-जाती
उड़ गए दिन वे भाप की तरह
जैसे उड़ गई जवानी मेरी
वह न जानेगी मुझे आपकी तरह
ख़त्म हो गई यहाँ कहानी मेरी

अब मैं भावुकता में यह सोचूँ कभी-कभी
मूरख थी वह
पर फिर यथार्थ में आ जाता हूँ
मैं मूरख ख़ुद था
पुरुष की इस दर्पभरी मुद्रा में, मित्रो
कि वह ‘कुछ’ है
उसकी यह दयनीयता छिपी है
कि वह बेहद तुच्छ है
जब उम्र हुई तो समझा मैं
प्रेम में जल्दबाज़ी होती है बेकार
प्यार होता है होते-होते
अमूल्य है धीमा प्यार