भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुँधले प्रतिबिम्ब / नईम
Kavita Kosh से
धुँधले प्रतिबिम्ब और काँपती लकीर ।
पीले पन्नों को जो मोड़ रहे
भीड़ को
अकेले में छोड़ रहे
धारा से कटे हुए उम्र के फ़क़ीर ।
तीन पात ढाक के लगाए हैं
जागे तो, प्रेत ही जगाए हैं -
पगड़ी से
झाँक रहे हरण किए चीर ।
नई फ़सल कौड़ी के लेखे में
गाड़ रहे अब भी
उखड़े खेमे
सीने से चिपकाए टूटी तस्वीर ।