भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुएँ की टहनियां / रामानुज त्रिपाठी
Kavita Kosh से
अभी कल तक
जागते ये भित्तिचित्र
हो गया क्या आज जो सोये मिले।
थके हारे दीप
अब किससे करें
अनुबन्ध कौन,
बहस करके
अंधेरों से
रोशनी भी हुई मौन।
लगे हैं अब
चिर प्रतीक्षित स्वप्न के
टूटने रागों भरे सब सिलसिले।
हवाओं से
हर दिशा
संवाद करने पर तुली,
डरा मलयज
थरथराकर
गंध की खिड़की खुली।
हो गईं हरियर
धुंए की टहनियां
फूल अंगारों के हैं जिन पर खिले।