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धुएँ को दीवार / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
साथ देने से किया इनकार
उनको
जो नहीं थे साथ के हक़दार
हरी टहनी-सी पड़ी है
रीढ़ जिनकी देह में
हाथ लम्बे हों भले, पर
हैं नहीं दो पाँव उनके स्नेह में
मैं न मानूँगा कभी भी धुएँ की दीवार
चाहे एक चौथाई रहूँ स्वीकार
भक्त हूँ मैं साफ़गोई का
प्रपंचों से परे हूँ
ग़ालियों का एक गट्ठर
एक कन्धे पर धरे हूँ—
पर न होगी म्लान वह मुस्कान
इतना जानता हूँ
और सच्चे आदमी को
आदमी ही मानता हूँ
आदमी जिनको न अंगीकार
उनका साथ देने से किया इनकार
वे नहीं थे साथ के हक़दार