आर और पार के बीच
युगों से तैरती मैं
रोज देखती हूँ
उगतेढलते सूर्य के साथ
घूमती पृथ्वी को।
गतिमान यथार्थ के परे
चिर जड़त्व से श्रापित धुरी को
आदि से पकड़ा है मैंने।
अब भला क्या अंत होगा
उस हृदय का
जो इसी गतिशीलता में
थम गया है।
यह सतत विस्तार मुझसे ही जुड़ा है
विचर लो तुम...
पर मुझे रहना यहाँ है
मैं तुम्हारी धुरी हूँ... जाना कहाँ है।