भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धूप आगे बढ़ गई / जगदीश पंकज
Kavita Kosh से
क्यों कंगूरों पर ठहरकर
धूप आगे बढ़ गई
है कहाँ मध्यान्ह
संध्या देहरी पर चढ़ गई
हर सुबह देखा तिमिर,
पीछे गया, आगे खड़ा है
आज बौनी सभ्यता का
आदमी कितना बड़ा है
नाप ही परछाइयों की
क्यों कहानी गढ़ गई
हम विकल्पों में सदा
चिन्तित रहे, आतुर रहे
और बस दो बूँद को
व्याकुल सभी अंकुर रहे
हर भविष्यत् की किरण
खाली हथेली पढ़ गई
आज तो हर मोड़ पर
टकराव है या शोर है
क्या करे इन्सान, अपने
आप से ही चोर है
फटे पन्नों को मिलाकर
ज़िल्द जैसे मढ़ गई