धूप की ओर खुलती खिड़की / दीपा मिश्रा
मेरे गाँव का वह छोटा-सा घर
घर में मेरा एक छोटा-सा कमरा और उस कमरे की वह
छोटी-सी खिड़की
जो धूप की ओर खुलती थी
जो हर रोज अपने संग लाती थी एक नया सवेरा
आशा से भरा हुआ
साथ में लाती थी
चिड़ियों की चहचहाहट
जो मेरे छोटे से कमरे को गुंजायमान कर देती थी
उसी खिड़की से आता था
बासंती हवा का झोंका
पर मन है कि उस छोटी-सी खिड़की पर अटका हुआ है
आज वहाँ नया घर बन चुका है पर मुझे सपनों में आज भी
वही पुराना घर दिखता है
वह घर जहाँ मेरा बचपन बीता वह घर जहाँ मैंने जीना सीखा
कोई उस घर को वापस ला दे
बस एक बार मैं अपने कमरे में थोड़ी देर उस
खिड़की के पास बैठना चाहती हूँ और छूना चाहती
उस खिड़की से छन-छन कर आती धूप को
उस मखमली धूप को
जिसे कभी बचपन में छुआ था
जानती हूँ यह संभव नहीं है
जो मेरे तन मन को
ऊर्जा से भर देता था
कभी उसे खिड़की से बाहर
अपने सपनों की
मंजिल तलाशती थी
अनंत आकाश को
देखने की चाह भी
उसी खिड़की के पास जगी थी
सोचती थी कि मेरे आगे की दुनिया कैसी होगी, कहाँ होगी
आज इस घर में
बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ है
पर दिल है कि कहता है कि काश कोई कारीगर आए
मुझे मेरे घर की वह
छोटी-सी खिड़की
हुबहू बना दे जाए
मैं लगा दूंगी उसे
अपने इस बड़े से घर के
पूरब वाले कमरे में
और एकबार फिर मिल जाए
मुझे वही खिड़की
जो धूप की ओर खुलती हो