भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धूप झाँकती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
172
आकण्ठ डूबे
सुधियों के सिन्धु में
खुद को भूले।
173
स्नेह सम्बल
उर में नेह भरा
रुकना नहीं ।
174
रातों भटका
तरु पर अटका
थका-सा चाँद ।
175
नंगा है सिर
ठिठुर रहे पैर
बर्फ़ में धँसे ।
176
मुस्काई साँझ
उतर आई धूप
हिम भी हँसे।
177
धूप झाँकती
खिड़की पर बैठी
चोरनी जैसे।
178
सन्नाटा घिरा
कहाँ गुम हैं बच्चे !
झूले उदास।
179
छू गए पोर
स्नेहसिक्त हो गया
मन का गाँव।
180
उदात्त श्वास
मन की तमिस्रा में
करे उजास ।
181
बीहड़ वन
सिर्फ़ सन्नाटे बुनें
पूरा जीवन।