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धूप बनकर आ गए ! / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
इस झुलसती धूप में
तुम मेघ बनकर आ गये!
यह हवा के नम झकोरे-सा
सुखद शीतल परस
आज सहसा ही गया
सूखे मरुस्थल पर बरस
फिर हरापन सौंपकर
तुम रूखको सरसा गये!
फिर लगी बहने थके मन में
कहीं कोई नदी
फिर लगी दिखने हमें
हर शाख फूलों से लदी
वीर को तुम और
बासंती वसन पहना गये!
एक उन्मन मौन फिर
अनुगूंज-सा बनकर खिला
फिर लगा जुड़ने
छरहरी आहटों का सिलसिला
बांसुरी-से गीत में
तुम छंद बनकर गा गये!