भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धोखा हुआ / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
धोखा हुआ, धोखा हुआ !
मैं राह चलता गिर पड़ा,
था बीच में पत्थर पड़ा,
यह सोच कर बढ़ता गया —
‘चलते रहो, चलते रहो !’
धोखा हुआ, धोखा हुआ !
बदली गगन में छा गयी,
आँधी प्रलय की आ गयी,
अंधे नयन को कर दिये,
यह सोचना, ‘लड़ते रहो !’
धोखा हुआ, धोखा हुआ !
अब भावना से उठ रहा,
कर सत्य का अनुभव कहा —
‘धरती बनाओ फिर चलो !’
आवेश के आधीन था
धोखा हुआ, धोखा हुआ !
1944