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नई आँख का पुराना ख़्वाब / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
आतिशदान के पास
गुलाबी हिद्दत<ref>गर्मी</ref> के हाले<ref>घेरे</ref> में सिमटकर
तुमसे बातें करते हुए
कभी-कभी तो ऐसा लगा है
जैसे ओस में भीगी घास पे
उसके बाज़ू थामे हुए
मैं फिर नींद में चलने लगी हूँ !
शब्दार्थ
<references/>