भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदी बहती है / रंजना गुप्ता
Kavita Kosh से
अहन्मन्यता के
अहँकार के पहाड़ों को
पार करती बहती है नदी
सौम्य शीतल जलधार
विरोध, अन्तर्विरोधों, बाधाओं को
ठेलती, परे धकेलती
फूटती है रसधार
निर्बाध, निरन्तर
विसँगतियों, वैमनस्यताओं के
दुर्गम पठार को करती दरकिनार
उत्तल उदधि के फेनिल तट
लहरो के कलरव, चञ्चल
अन्तर सी निर्मल
झर-झर बहती रहती है
नदी प्रेम की बहती है
कल-कल
छल-छल