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नपुंसक / माया मृग

Kavita Kosh से
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सच की लौ भभकती,
चेहरा, गरम-तपता
आँखों से झांकती
लौ की लपटें,
बाल धुआं-धुआं से उड़ते,
सांसें भाप होतीं,
हाथ-पैर जलते-कहीं ना टिकते
भीतर की यह आग
मुँह तक आकर
तालू जला डालती,
होठों पर फफोले पड़ते
......और
एक क्रांतिकारी कवि
बार-बार कहता/लिखता
कविता-कविता-कविता !

.... उसने जलती आँखों से देखा
लगा कि वह
सारा का सारा दृश्य
जला डालेगा
हाथों की मुट्ठियां भिंची
भौंहें तन गईं,
नसों में फुफकारें होने लगीं
लगा कि ....
शिव का तिसरा नेत्र
बस खुलने को हैं।
सृष्टि कांप उठी
त्राहि-माम् त्राहि-माम् त्राहि-माम् !
पर कुछ नहीं,
कुछ भी नहीं
उसने देखा-
देखा और घर चला आया-!
कमरा बंद कर
कलम उठाई और
एक कविता लिख डाली !
बस !