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नयनों की गागर / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
कितने ही स्वप्न सलोने से,
देखे थे मैंने जिस पल के।
वह पल जब आया जीवन में,
दो नयनों की गागर छलके।।
बचपन की सुधियों ने घेरा,
रस्ता रोकें बहनें सखियाँ।
राखी के धागे विवश करें,
रह रह कर भर आएँ अखियाँ।
हाथों से जाते लगते हैं,
रिश्ते-नाते बीते कल के।।
वर्षों सोयी मैं सर धर कर,
माँ के आँचल की छाँव तले।
मेरी खातिर हर पल जगना,
जब तक ना काली रैन ढले।
माँ की ममता लगती जैसे,
पावन घट हों गंगा जल के।।
कुछ पल तो रुक मेरी बटिया,
बाबुल के भीगे नयन कहें।
बेटी बाबुल की परछाई,
युग-युग से धरती गगन कहे।
बाबुल मुझको बतला कैसे,
डोली तक मैं जाऊँ चल के।।