भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नया कल्पना पथ / प्रेमलता त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नया कल्पना पथ, नयी हर सुबह अब, सहज पग बढ़ाने लगी गीतिका।
सुगम ही लगे भाव मन में जगे तब, मुखर सुर सजाने लगी गीतिका।

अभावों सजी यामिनी पथ निहारें, कहीं शीत करुणा भरी जागती,
नहीं पास जिसके दुशाले बिछावन, नयन को झुकाने लगी गीतिका।

महल हैं बनाते सहे धूप बरखा, रहे क्षीण काया चमन के रथी,
सहारा बनो तब बढ़े मान अपना, बताने-जताने लगी गीतिका।

बिषैली सुरा पी हने प्राण अपना, तजे मार्ग दूषण व्यसन मिट सके
सकल व्याधि चिंतन भरे चेतना को, सिखाने दिखाने लगी गीतिका।

श्रमिक तो सभी है अहं भाव छोटा, सुखी है वही जो भरा स्नेह से,
बने काल जेता सदय हो उसी को, शिखर तक उठाने लगी गीतिका।

सजल हो उठी प्रेम जग रीति ऐसी, नहीं देख सकती दशा लेखनी,
विकट त्रासदी कौन इसको सुधारे, हृदय को रुलाने लगी गीतिका।