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नया कैलेण्डर / ओम पुरोहित ‘कागद’

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एक अदने से व्यक्तित्व का
स्वाभिमानी आदमी,
बिना पूंछ के
सम्मान का अधिकारी
कदापि नहीं हो सकता।
इसे यदि आप
मेरी भावुकता समझ
दो पल हंस लेते है,
तो मै समझूंगा
किसी बड़े आदमी का--
मनोरंजन ही सही।
वरना
दिल तो जलता है।
दस द्वार होते हुए भी
कमबख्त,
धूंआ तक नहीं छोड़ता
वरना
आपका विश्‍वास जुटा पाना,
कोई अतिशयोक्‍ति न होती।

शाक उबल कर
पका होना ही माना जाता है,
जल जाना ही नहीं।

दिल सीने के भीतर रख कर
उसने गलती की है।
यदि यही सीने के ऊपर--
टांग दिया होता
तो कुर्ते के आवरण को हटाने के में
शायद,
अधिक समय न लगता ;
जले शाक का--
छिलका उतारने की आदत तो बचपन से है ;
दिल का जला आवरण
उतार कर दिखने में
मैं शर्म न करता।
यदि ऎसा करना उसके लिए--
सम्भव न था, तो कम से कम इसे
स्पंज ही बना देता।
छुट्टी के दिन,
घर के किसी कोने में
एकान्त पा कर
दर्द निचोड़ कर,
पुनः
नये कैलेण्डर की तरह
टांग देता
अपने पंजराये सीने में
दिल को।