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नवसृजन के स्वर (गीत) / राजेन्द्र वर्मा

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नवसृजन के स्वर सुनाने मैं चला हूँ।
सुप्त चेतनता जगाने मैं चला हूँ॥

प्रेम का सागर हृदय में भर लिया है
शूल को भी फूल जैसा कर लिया है
तज दिया है स्वार्थ का मैंने हलाहल
लोकहितकारी अमृत को वर लिया है

स्नेह सुमनों से सजाकर ज़िन्दगी को
सत्य-शिव-सुन्दर बनाने मैं चला हूँ।

श्रम-परिश्रम ही सदा करता रहा हूँ
दग्ध उर संवेदना भरता रहा हूँ
स्वप्न-जाग्रत या सुषुप्ति-तुरीय में
हर अवस्था धैर्य ही धरता रहा हूँ

शब्द-सरिता बह रही मेरे हृदय में,
अर्थ की लय गुनगुनाने मैं चला हूँ।

ध्येय जीवन का सतत संघर्ष करना
लड़खड़ाते साथियों में शक्ति भरना
लोग जो भी हैं दबे-कुचले-निराश्रित
शीघ्र ही उनका मुझे दुख-दर्द हरना

शोषकों से मुक्त करनी है व्यवस्था
वंचितों हक़ दिलाने मैं चला हूँ॥