नव वर्ष: चार कविताएँ / रामदरश मिश्र
1.
कल नव वर्ष आने वाला है
आज रात होटलों में नाचते गाते,
धूम मचाते ऊँचे लोग उसकी अगवानी कर रहे हैं
वे नहीं जानते कि नये समय का अर्थ क्या है
उनके लिए तो नव वर्ष
एक दिन का उन्मत्त उत्सव होता है
होटलों, बारों आदि में
बेसुध होकर मनाया जाने वाला
बाकी आम लोग तो काम धाम से थककर
दस बजे तक सो जाते हैं अपने अपने घरों में
और वे दूसरे दिन सहज भाव से ही लेते हैं नव वर्ष के साथ
अपना वही सुख-दुख लिए हुए...।
2.
शीत की लहर है
घर में सिकुड़ा बैठा हूँ
सोचता हूँ कुछ लिखूँ
लेकिन लेखनी में भी जागृति नहीं है
मौसम और आसपास की दुनिया में
कोई प्रसन्न नई हलचल नहीं
लेकिन कहा जा रहा है
नव वर्ष आ गया।
3.
नव वर्ष का पहला दिन है,
मौसम में कोई उल्लास नहीं
बधाइयाँ आ रही हैं रस्म अदायगी सी
घर के सारे काम उसी तरह चल रहे हैं
मैं भी कमरे में बैठा हूँ चुपचाप
लेकिन एकाएक महसूस होने लगा
कि मेरे भीतर झरना झर रहा है
इनके उनके न जाने किन-किन के प्यार का
‘नव वर्ष’ से मैंने कहा-
हे प्रिय, तुम और कुछ करो या न करो
मेरा प्यार बाँट देना चारों दिशाओं में
मेरा स्वर मिला देना मनुष्यों और पक्षियों के गान में
उगा देना बुझी-बुझी आँखों में
नये-नये सपने मेरी कविताओं के।
4.
न हो नया मौसम
न हो सहज उल्लास मनुष्य और प्रकृति में
लेकिन नववर्ष को तो आना ही होता है
कलेंडरों में
वह जैसा भी है एक प्रतिज्ञा है
आ रहे समय में कुछ अच्छा करने की
परीक्षण है पिछले दिनों की ग़लतियों का
दरअसल वह तो समय है अन्य समयों सा
उसमें बदलाव तो मनुष्य ही लाता है-
नये संकल्प के साथ
लेकिन जड़ लोग चलते रहते हैं रूढ़ियों की बैसाखी पर
और असफलताओं तथा घोर कृत्यों का दोष
मढ़ देते हैं समय के सिर...!
-1.1.2014