भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं गए हम घर अपने / विजय वाते

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिनों से नहीं गए हम घर अपने।
कुछ अपनी मज़बूरी थी, कुछ डर अपने।

सूनी आँखे, फुटपाथों पर पड़े रहे,
तुम कहते हो, सोए थे हम घर अपने।

छोटी-छोटी बातों पर यूँ इतराना,
इस तरहा तो खो दोगे तुम हर अपने।

ज़ुर्मे मुहब्बत का क्या होगा सोचो तो,
हर इल्ज़ाम जो ले जाओगे सर अपने।

ज़्यादा उड़ने से पहले ऐ 'विजय' ज़रा,
आसमान को नापो, तौलो पर अपने।