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नहीं दिखती धूप / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती
Kavita Kosh से
कोई कह गया है
कि ख़त्म हो गई है बारिश
कि अब धूप है,
अब धूप है चारों ओर
आसमान में है धूप
सफ़ेद खिलखिलाती धूप मैदानों में है
अब आसमान फिर से सुन्दर-सुनील है
अब बादलों का रंग सफ़ेद है
सफ़ेद है फूलों का रंग
अब धूप का रंग भी सफ़ेद है
अब यह हृदय भी फिर से बादल-फूल-धूप की तरह
सफ़ेद हो जाएगा।
जाने किसने कही है यह बात
जाने किसने कही है
इसीलिए मैं घर बाहर आया हूँ
जबकि बाहर मुझे कहीं भी धूप नहीं दिखती
न बादल, न फूल
मुझे कुछ भी नहीं दिखाई देता
चलो, मैं घर लौट जाऊँगा!
मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी