नाभि-नाल / दिनेश कुमार शुक्ल
बरसने लगता है पुतलियों पर
माँ की कोख का मद्धम प्रकाश
जब भी जा पाता हूँ
वहाँ जहाँ जन्मा था
जनमते ही पहली साँस में
खिंची थी जो हवा
होगी तो
पर कहाँ होगी इस वक्त ?
इस वक्त
क्या देख रही होंगी वे आँखें
मुझे धरती पर देखा जिन्होंने
पहले-पहल ?
मेहतरानी चाची के हाथ
जिन्होंने जनाया था मुझे
हाथ जो साफ करते रहे
दुनिया का मल-कल्मष
चिता की राख बन
गंगा में बहते
पहुँच गये होंगे
समुद्र पार दूर द्वीपों में
वह हवा, वे आँखें, वे हाथ
अब व्याप्त हैं चराचर में
और हँसते हैं
फूल, दूब, बादल और
नक्षत्र बन कर
माँ की झुकी कमर ही
विंध्याचल
धुंधली आँखें ही
सूर्य चन्द्र
सूखते स्तन ही
क्षीर सागर
माँ की धमनियों में घुली
ऑक्सीजन की गंध
उठती है धरती से
जहाँ गड़ी है मेरी नाल
जो पहुँच गई होगी अब
घुसती पाताल तक
जाने किस पोषण को खोजती
सत्य की जड़ तक
अतल में अथाह..............