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नालंदा के खंडहर / निर्मला गर्ग

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इतिहास का स्पर्श इतना सघन था वहाँ सिहर उठी थी
मेरी समूची देह
हट रहा था ढाई हज़ार वर्ष लंबा पर्दा
मैं देख पा रही थी शिक्षा और विद्या का वह अद्वितीय केंद्र
अध्ययन कर रहे थे जहाँ देश-विदेश से आए
हज़ारों बौद्ध भिक्षु
कोई न्यायशास्त्र पढ़ रहा था कोई चिकित्साशास्त्र
किसी को व्याकरण का ज्ञान चाहिए था किसी को
आत्मसात करना था धर्मग्रंथों का सार
नागार्जुन वसुबंधु दिडनाग धर्मकीर्ति जैसे अप्रतिम दार्शनिक
तर्क करते आत्मा की नश्वरता पर

नालंदा तुम्हारी प्रिय जगहों में रही है बुद्ध
तुम्हारे प्रिय शिष्य सारिपुत्र का चैत्य यहीं है
उसे उपदेश देते हुए तुम्हारी मूर्ति देखी जो
संभवत: सम्राट अशोक ने बनवाई थी
मैं देख रही हूँ तुम टहल रहे हो विश्राम कर रहे हो
भीतर गहन उद्वेग से भरे ऊपर से दीखते
सौम्य शांत
बुद्ध तुमने दुःख के मूल को व्यक्ति में देखा
समाज में नहीं
सामाजिक पापों को इसलिए काट नहीं पाए
सामाजिक उपचार से
पर तुमने गहरी चोट की उस वर्ण व्यवस्था पर
टिकी थी जो स्वार्थ और चालाकी पर
पुनर्जन्म के पुण्य-पाप
ज्ञान के बदले भक्ति कर्मकांड
असंख्य लोगों को ग़ुलाम बनाकर वर्चस्व कुछ जातियों का
स्त्रियों की दासता की तो कथा अनंत
तुमने सब उलट दिया संघ में तुम्हारे सबके बराबर स्त्रियाँ भी |
(हालाँकि उन्हें लेकर पहले तुम्हारे मन में एक हिचक थी )

कुमारिलों शंकराचार्यों को कहाँ बर्दाश्त होता यह हस्तक्षेप
कई बार हुए आक्रमण यहाँ नष्ट हुए संघाराम
गाइड दिखा रहा है जली ईंटें जले चावल रखे हैं
संग्रहालय में
वह रत्नोंदधि पुस्तकालय का जल गया अग्निकांड में

नालंदा का विनाश
बौद्ध धर्म के भारत से लुप्त हो जाने के इतिहास का ही
करुण अध्याय है एक-
गाइड गहरी उसाँस भरता है
मैं उसे सवालिया निगाह से देखती हूँ
'सिर इतना बड़ा और
पैर इतने कमज़ोर
लंगड़ाकर ही चल सकता है देश' कहता हुआ
गठिया से जुड़े पाँवों को घसीटता विदा लेता है |

                         
 रचनाकाल : 2004