भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ना आइल / अनिल ओझा 'नीरद'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठकुरसुहाती अबले भइया, हमरा गावे ना आइल ।
खुद कबहूँ, हंसनी ना त, दोसरो के हँसावे ना आइल।।

सोचते रहि गइनी,जिनिगी के,रस से सराबोर कई दीं ।
हो गइनी नीरस काहें, अतनो त बतावे ना आइल ।।

कई बेरि सोचनीं, कि चोटी, हिमगिरि के हमहूँ छू लीं।
संकल्पे ना सधि पावल कि, कदम बढ़ावे ना आइल ।।

गांव से चलि के,शहर तलक, आ गइनी जाने कइसे दो?
एकरा से आगे के रस्ता, हमें बनावे ना आइल ।।

बिन पानी के मछरी अइसन,तड़पि-तड़पि जीयत बानी।
तड़पि के जीये आइ गइल,पानी त जुटावे ना आइल ।।

होई कबो उजाला कवनो, बस खाली सपने लागल ।
अन्हियारा समाज वाला से,बचे-बचावे ना आइल ।।

लोग कहत बा,सम्हरि जा बबुआ,अबहूँ बहुत समय बाटे।
समय के अपना खाँचा में त, हमें सजावे ना आइल ।।

बरिसन से त, लागले बाटे,अपना-अपना काम में लोग ।
सभकेहू का,अपना के, काबिल त बनावे ना आइल ।।