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निज़ामुद्दीन-10 / देवी प्रसाद मिश्र
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					ये मेरे होश में क्यों इतनी गड़बड़ी-सी है ।
ये मेरे जोश में क्यों इतनी हड़बड़ी-सी है ।
ये किसी से जो कहूँ तो भी कहना बाक़ी, 
ये मेरी फ़िक्र किस उजाड़ की घड़ी-सी है ।
ये कहीं से जो उठाई तो कहीं रक्खी-सी, 
ये कोई बात थी जो यूँ ही क्यों पड़ी-सी है । 
मेरे लिखने पे मेरे यार तेरा क्या लिखना, 
वो कोई ज़िद है जो हमसे कहीं बड़ी-सी है ।
ये जो बदली नहीं दुनिया तो मैं बदला-बदला, 
वो मेरी शक़्ल किस सियाह में मढ़ी-सी है ।
मेरे होने का हुनर और मेरा ये होना, 
क्योंकि छोटी हो बहर नज़्म तो बड़ी-सी है । 
लाल है वो कि ख़ुदाया हुआ दलाल भी है,
शक़्ल हो, अक़्ल हो कि हाल में पढ़ी-सी है । 
मैं निज़ामुद्दीन हुआ और हुआ और हुआ, 
वो कोई हद नहीं अनहद की जो कड़ी-सी है ।
	
	