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निज विवेक में जाग / कन्हैया लाल सेठिया

मैं ही कारण
मैं ही कर्ता
मैं विकार
अविकार,
मैं ही बन्धन
मैं ही मुगती
दूजो कुण भरतार ?

जै बरसाऊं
म्हारै ऊपर
म्हारी करूणा धार,
मिटै देह रो ताप
हुवै निज
आतम रो उपगार !
जिंयां काच में
दिखै आप रो बिम्ब
बिंयां हियै रै
राग धेख रो
दूजा में प्रतिबिम्ब,

चावै जे
अणभूत्यो इण नै
मन विवेक में जाग,
कोनी फिरै
भटकतो मिलसी
सत रो सहज सुराग !