भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निज सुख वांछा नैकु नहिं / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निज सुख वांछा नैकु नहिं, नहिं मन भोगासक्ति।
प्रिय-पद-रति अति बढ़त नित, सुचि प्रिय-सुख-‌अनुरक्ति॥
नित नव मधुमय मिलन-सुख, नित नव रस-‌उल्लास।
नित नव-नव प्रिय-सुख-करन, सरब-समरपन रास॥
नित नव निरमल बिधु-बदन, नित नव कला-कलाप।
नित नव मुरली-धुनि मधुर, नित नव रस-‌आलाप॥
नित अनन्य ममता नवल, नित नव रस-बिस्तार।
नित प्रियतम-सुख-लालसा, अनुदिन बढ़त अपार॥