भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निर्मल प्रेम नित्य यौं बोलै / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
निर्मल प्रेम नित्य यौं बोलै।
अपने दोष विमल गुन पिय के लाख-लाख करि काढ़ै-तोलै॥
छक्यौ प्रेम-रस-सुधा निरंतर अग-जग भयौ बावरौ डोलै।
दीखै हियौ प्रेम-रस छूँछौ पाय प्रेम-धन-रतन अमोलै॥
प्रेम-पियास बढ़त नित पावन-प्रेम अभाव दिखावत रोलै।
धनि-धनि ऐसौ प्रेम-धनी जो नित नव प्रेम-गोलकहि खोलै॥
मोय परम सुख पहुँचावन-हित नित अति मधुर अमी-रस घोलै।
तुम ऐसी, तातैं मैं रिनिया, सेवौं सकुचत हौले-हौले॥