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निर्मल प्रेम नित्य यौं बोलै / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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निर्मल प्रेम नित्य यौं बोलै।
अपने दोष विमल गुन पिय के लाख-लाख करि काढ़ै-तोलै॥
छक्यौ प्रेम-रस-सुधा निरंतर अग-जग भयौ बावरौ डोलै।
दीखै हियौ प्रेम-रस छूँछौ पाय प्रेम-धन-रतन अमोलै॥
प्रेम-पियास बढ़त नित पावन-प्रेम अभाव दिखावत रोलै।
धनि-धनि ऐसौ प्रेम-धनी जो नित नव प्रेम-गोलकहि खोलै॥
मोय परम सुख पहुँचावन-हित नित अति मधुर अमी-रस घोलै।
तुम ऐसी, तातैं मैं रिनिया, सेवौं सकुचत हौले-हौले॥