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निशा का युग / महेन्द्र भटनागर

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अंधकार में डूबा हुआ
घिरा संसार,
समस्त
नयन की सीमा तक
गहन अंधकार
बेछोर घोर !

ग्रस्त सभी
लघु-क्षुद्र वस्तुएँ, विशाल प्रतिमाएँ
शिव सुंदर सत्य सार
घन अंधकार !
स्वच्छ नये जीवन से उभरा स्वस्थ सार
औ’ सब अशिव, असुंदर, असत्य भार
उखड़ा जीर्ण निर्जीव भार !
सड़कें, मकान, पशु-पक्षी,
घास, पेड़, धूसरित मैदान,
मनुज, रंगीन मेघ,
झिलमिल असंख्य तारक;
पार्थिक संचय
घन अंधकार लय।
मानों जग को शव समझ
मूक ठंडे दिल से
अदृश-शक्ति ने बिछा दिया हो
काला ला कफ़न !
और जिसके भीतर
जानदार देह तड़प उठती हो
बार-बार,
रह-रह
श्वास-पंथ के लिए छिद्र एक पाने !

पथ-हारा मन
भूला-भटका थकित-तृषित
खोज रहा अभिनव आलोक
शोक में डूबा हुआ
जीवन का अभिलाषी
सहम गया
चारों ओर देख अंध-कूप !

गतिरोध ?
नहीं,
है शाश्वत इसका
मानव-गति से विरोध,
मानव तो
गतिशील, नित्य अभिनव, परिवर्तित
उसके जीवन का है सत्य यही
क्या उसकी स्वाभाविक गति
रुकी कहीं ?
उसकी छाती पर से
लोहे के इंजन जैसे अगणित
सघन-निशा युग ढल जाएंगे !
सहन किये हैं उसने
बर्फ़ीले युग
आँधी भूकम्पों के युग
ज्वाला के युग,
भयभीत न हो !
घन अंधकार
अरे मिलेगी, अरे मिलेगी
प्रकाश की नयी किरण
भर कर उर में
ज्योतिर्मय जग की आश
अटल विश्वास !
नहीं मन हार
कभी मत हार
माना फैला
घन अंधकार !