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निस्पन्द तरी, अति मन्द तरी / रामकुमार वर्मा
Kavita Kosh से
निस्पन्द तरी, अति मन्द तरी।
चल अविचल जल कल कल पर
गुंजित कर गति की लघु लहरी॥
निस्पन्द तरी, अति मन्द तरी।
साँसों के दो पतवार चपल,
सम्मुख लाते हैं नव नव पल;
अविदित भविष्य की आशंका की
छाया है कितनी गहरी!
निस्पन्द तरी, अति मन्द तरी।
मेरी करुणा का मृदु सावन,
पुलकित कर दे तन-तन मन-मन;
विस्तृत नभ की व्याकुल विद्युत
पल पल बन जाती है प्रहरी॥
निस्पन्द तरी, अति मन्द तरी।