भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद में भटकता हुआ आदमी / राजकमल चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नींद की एकान्त सड़कों पर भागते हुए आवारा सपने ।
सेकेण्ड-शो से लौटती हुई बीमार टैक्सियाँ,
भोथरी छुरी जैसी चीख़ें
बेहोश औरत की ठहरी हुई आँखों की तरह रात ।
बिजली के लगातार खम्भे पीछा करते हैं;
साए बहुत दूर छूट जाते हैं
साए टूट जाते हैं ।

मैं अकेला हूँ ।
मैं टैक्सियों में अकारण खिलखिलाता हूँ,
मैं चुपचाप फुटपाथ पर अन्धेरे में अकारण खड़ा हूँ ।
भोथरी छुरी जैसी चीख़ें
और आँधी में टूटते हुए खुले दरवाज़ों की तरह ठहाके
एक साथ
मेरे कलेजे से उभरते हैं
मैं अन्धेरे में हूँ और चुपचाप हूँ ।
सतमी के चाँद की नोक मेरी पीठ में धँस जाती है ।
मेरे लहू से भीग जाते हैं टैक्सियों के आरामदेह गद्दे
फुटपाथ पर रेंगते रहते हैं सुर्ख़-सुर्ख़ दाग़ ।
किसी भी ऊँचे मकान की खिड़की से
नींद में बोझिल-बोझिल पलकें
नहीं झाँकती हैं ।
किसी हरे पौधे की कोमल, नन्हीं शाखें,
शाखें और फूल,
फूल और सुगन्धियाँ
मेरी आत्मा में नहीं फैलती हैं ।


टैक्सी में भी हूँ और फुटपाथ पर खड़ा भी हूँ।
मैं
सोए हुए शहर की नस-नस में
किसी मासूम बच्चे की तरह, जिसकी माँ खो गई है,
भटकता रहता हूँ;
(मेरी नई आज़ादी और मेरी नई मुसीबतें... उफ़ !)
चीख़ और ठहाके
एक साथ मेरे कलेजे से उभरते हैं।