नीम का पेड़ पलाश हुआ / हरेराम बाजपेयी 'आश'
सुधियों के बादल बरसे है,
जीवन के आशियाने में,
दस सावन ही शेष बचे हैं,
मुझको अब सठियाने में।
मणिमाला-सी बूंदों की जब,
छप्पर से उरौंती गिरती थी,
बरसो राम धड़ाके से तब,
गलियों के गन्दले पानी में,
कागज की नाव बहाते थे,
नंगे बदन स्सथियों के संग,
सावन में खूब नहाते थे,
रिमझिम बूंदों जैसा बचपन,
बीत गया बचकाने में।
दस सावन ही शेष...
बगल में बस्ता, खेतों से रास्ता,
गीत उमंग के गाते थे,
टेसू के फूलों संग हँसते,
और महुआ से मदमाते थे,
तन बसंत था मन बसंत था,
मदमाती जब चले बायरीय,
सब अनेत-सा लगता था,
हम वयस्क हो गए रे भैया,
कोयल के बहकाने में,
दस सावन ही शेष बचे...
आमों में बौरों की सुगन्ध,
खेतों में बाली हुई सुगन्ध,
खेतों में बाली हुई हरी,
केशरिया रंग में तन डूबे,
मौजों की जैसे लगी झरी,
खुशियों के संग गम भी होते है,
फिर इसका भी एहसास हुआ,
श्रम की कठिन धूप में तपकर,
नीम का पेड़ पलाश हुआ,
बहुत ठोकरें दिन तन-मन को,
सही राह अपनाने में।
दस सावन ही शेष। ...
रेवा तट पर बसी नगरिया,
जो जबलपुर कहलाती है,
जिसकी माटी में कवि जन्में,
गलियाँ भी गीत सुनाती हैं।
उसी नगर में पीड़ा पाई,
जो कविता की बनी सहेली,
दर्द हमारा दोस्त बन गया,
कैसी यह अनबूझ पहेली,
बहुत तपाया खुद को मैंने,
दिल को कलाम बनाने में,
दस सावन ही शेष...
सभी मोह मिट गए हदय में,
जब हिन्दी की ज्योति जली,
पथ आलोकित हुआ आश और
राष्ट्र भक्ति की नीति फली,
श्याम, सरोज, विलास, प्रभाकर,
प्रमुदित काव्य की कली कली,
श्री नरेश का अभिन्नदन कर,
नई दिशा को नाव चली,
वाणी को आकाश मिल गया,
शब्दों से बतियाने में,
दस सावन ही शेष बचे...