नीम गांव वाली / अशोक तिवारी
नीम गांव वाली
उस औरत का चेहरा
कैसा था आख़िर......
लंबा-सा
सुता हुआ
पिचके हुए गाल
लंबी जीभ
पीले दांतों के बीच
बुदबुदाती हुई
उसके अंदर की एक और औरत
देती हुई
दुनिया के बच्चों को
आशीष, गाली या
मिला जुला सा कुछ
कैसा था उस औरत का चेहरा
सूखी हड्डियों पर जैसे मुरझाए मांस का सा लोथ
पटसन बाल
बसंत के मौसम में टूटे हुए
पीले पत्तों की तरह
क़दमों को जमा जमाकर
उस औरत का चलना
उसकी भंगिमा को
कर देता था तब्दील एक ऐसे रूप में
जा रही हो जैसे कोई हिरनी
अपने बच्चों की हिफ़ाजत में
आती हो जो खदेड़कर किसी ताक़तवर जानवर को
एक सवाल टॅकता है
मेरे जे़हन में बार बार
कैसी होती उसकी भावभंगिमा
छत पर दौड़ते और कूदते मेरे बच्चों को देखकर
कोसती क्या आज भी
होती अगर अब वो
अपने इसी घर में
बनवाया था जिसे उसके आदमी ने
एक आस और उम्मीद के साथ
रह नहीं पाया था जिसमें मगर वो एक भी दिन
और चला गया था ज़िंदगीभर के लिए उसे
अकेला और बेसहारा छोड़कर
बेऔलाद होने के दंश के साथ
देवर जेठ की घुड़कियों और गालियों के बीच
उस औरत का चेहरा कैसा था
कि पहचान सकता था जिसे कोई भी
मिला हो जो उससे एक बारगी
कभी भी, कहीं भी
मेले की भीड़ के बीच में भी
ख़रीदते हुए
सिंघाड़े या केले की गहर,
धनिया या हरी मिर्च
या सुबह शाम
खेत में जाते हुए फ़ारिग होने के लिए
लोटा हाथ में उठाए
बुदबुदाते हुए मन ही मन
बनाते हुए हाथों को विभिन्न मुद्राओं में
जूझ रही हो जैसे
वो अनंत समय से
किन्हीं अनसुलझे अनगिनत सवालों से
और कर रही हो शिकवा- शिकायत
किसी उससे
बैठा था जो उसके अपने अंदर
और सुन सकता था
उसकी कही अनकही बातों को
या अपने आपसे यूं ही........
वो औरत
नहीं पुकारी गई जो कभी भी
किसी एक ख़ास नाम से
पुकारा गया कभी उसे घर
तो कभी घेर के नाम से
कभी गांव तो
कभी शहर के नाम से
फूटे वाली
नीम गांव वाली
फाटक वाली
कच्चे वाली या
मरे हुए आदमी की रांड़
विशेष दर्जों से नवाजा गया कई बार उसे
नाम में क्या रखा था उस औरत के लिए
जिसका चेहरा
बिल्कुल सपाट बन गया है
मेरी आंखों के पुराने नैगेटिव में आज
और जिसकी झुर्रियों की धुंधली परत
अब मेरी विस्मृतियां का हिस्सा है सिर्फ़
इस हद तक कि मैं
अपने आपसे ही पूछता हूं कि
कैसा था उस औरत का चेहरा आख़िर
और सुनता रहता हूं मैं
लंबे वक़्त तक
इसी प्रश्न का अनुनाद बार-बार!!
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17/9/2009